गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

माँझी जो नाव डुबोये उसे कौन बचाये..!


जब कोई युवा किसी प्रतिष्ठित संस्थान से प्रोफेशनल कोर्स कर नौकरी की तलाश में निकलता है, तो दो बातें होती हैं या तो उसे नौकरी नहीं मिलती या फिर मिल जाती है। अगर नहीं मिलती तो अलग बात है लेकिन नौकरी मिलने का मतलब है, लाइफ सेट! इक्कीसवीं शताब्दी के इस दूसरे दशक में छोटी से छोटी कंपनी में भी काम करने पर  कम से कम 15,000 तनख्वाह मिल ही जाती है। बस कुछ अपवादों को छोड़ दें तो, इसे विडंबना कहूं या व्यंग्य लेकिन देश में हर रोशनी का अलख जगाने वाले, लोकतंत्र को जीवित रखने वाले, दबे-कूचलों की आवाज़ उठाने वाले हमारे मीडिया संस्थान भी इस अपवाद का हिस्सा हैं। इसे दीया तले अंधेरा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अधिकारों, मैलिक कर्तव्यों की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन मीडिया संस्थानों की ये सबसे कड़वी सच्चाई है। एक ऐसा पहलू जिससे ज्यादातर लोग अनभिज्ञ हैं।

आप कल्पना कर सकते हैं? किसी बड़े से प्रोफेशनल डिग्री कॉलेज में लाखों खर्च करने के बाद जब आप नौकरी ढूंढने निकले, तो आपको इंटर्नशिप के नाम पर महीनों घिसा जाए। वो भी बिना किसी तनख्वाह के और इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं कि ये महीने साल में भी बीत सकते हैं। ये दुःस्वप्न मीडिया जगत की हकीकत है। जिसे हजारों युवा जीते हैं। वो भी सिर्फ एक दस हजार की नौकरी के लिए। दस हजार का ये आंकड़ा उन चैनलों का है जो नंबर 4, 5 या 6 की कुर्सियों पर विराजमान हैं। जहां गार्डों की तनख्वाह एक डिग्रीथारी युवा से ज्यादा होती है। इन मीडिया संस्थानों में ऐसे चैनलों की भी कमी नहीं है जहां शुरुआत 4000 रुपये से होती है। जिससे ज्यादा एक मजदूर 10 दिनों में 8 घंटे काम करके कमा लेता है। लेकिन इन छोटे चैनलों में ना तो काम के घंटे फिक्स हैं और ना छुट्टियां। अगर महीने में कोई बिना छुट्टी के 30 दिन लगातार काम करे तो कोई हैरानी वाली बात नहीं। जो लोग टीवी 100 जैसे चैनलों में काम कर चुके हैं वो इससे बखूबी इत्तेफाख रखते होंगे।

किसी क्षेत्र में आप छोटी कंपनियों में काम कर अपना परिवार पाल सकते हैं लेकिन मीडिया में अगर आप छोटे चैनल में काम करते हैं तो खुद तक को पालना बेहद मुश्किल है। परिवार की सोचना, खुली आंखों से सपने देखने जैसे है। हालांकि शीर्ष के चुनिंदा चैनलों में जिंदगी थोड़ी आसान है।

ये देश का शायद इकलौता ऐसा सेक्टर है जहां कब आपकी नौकरी चली जाए कोई नहीं जानता और निकाले जाने के बाद नई नौकरी की तलाश मेें चप्पलें घिस जाती हैं। उसके बाद भी पिछले सकेल पर तन्ख्वाह मिल जाए तो सितारे बुलंद समझिए जनाब! टीवी इंडस्ट्री के छोटे से दौर में ना जाने कितनी बार दर्जनों की संख्या में कर्मचारियों को बिना किसी नोटिस के नौकरी से निकाल दिया गया। साल 2013 आईबीएन से 320 मीडियाकर्मी आउट, मंदी के दौर में एनडीटीवी से एक मुश्त सैंकड़ों की संख्या में मीडियाकर्मी आउट, लेकिन ना तो कोई सवाल पूछने वाला और ना कोई जवाब देने वाला। हर तरफ सिर्फ शांति क्योंकि सब ठीक है। आज आप पार्टी का तमगा लेकर जीना के अधिकारों की बात करने वाले, ये वहीं आशुतोष हैं जो उस दौर में आईबीएन के एडिटर इन चीफ हुआ करते थे। रवीश भाई का एनडीटीवी में तब भी एक बड़ा औदा था लेकिन तब ना तो किसी ने ब्लॉग लिखा ना ब्रेकिंग चलाई गई। खैर, ये तो पुरानी बातें हैं। आज भी कई चैनलों में महीनों-महीनों लोगों को तनख्वाहें नहीं मिलती। कहीं तनख्वाह मांगने पर कर्मचारी को पीटा जाता है तो कहीं बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाता है। सिर्फ इस उम्मीद में नौकरी करिए की कभी पैसा मिलेगा... सहारा प्रबंधन में लंबे समय से दर्जनों की संख्या में पत्रकार अपने हक के लिए आवाज़ें लगा रहे हैं लेकिन टीवी जगत के सितारे मौन हैं। सवाल है आखिर क्यों? देश में घटने वाली हर घटना पर ताल ठोकने की बात करने वाले एनडीटीवी से हाल ही में 36 कैमरामैन निकाले गए, सहारा से करीब 40 लोगों की छुट्टी कर दी गई, मीडियाकर्मी या कहूं मीडिया पीड़ितों ने तब भी आवाज़ उठाई थी और अब भी अब उठा रहे हैं लेकिन इन खबरों को कहीं जगह नहीं मिलती। आखिर क्यों? 

लिखना को अभी बहुत कुछ है...लेकिन राजेश खन्ना की फिल्म अमर प्रेम के एक गीत की कुछ पंक्तियों के  साथ अपनी लेखनी को यहीं विराम देता हूं...

मज़धार में नैय्या डोले, तो माँझी पार लगाये,
माँझी जो नाव डुबोये उसे कौन बचाये..

 

  




सोमवार, 1 अगस्त 2016

कुष्ठ का कलंक

ज्यादातर देशों में कुष्ठ रोग का सफाया लगभग 15 साल पहले ही हो गया था। लेकिन कुछ देशों में अब भी यह बीमारी सामने आ रही है, भारत भी उनमें से एक है लेकिन हैरत की बात यह है कि कुष्ठ के 60 फीसदी से ज्यादा मामले सिर्फ भारत में सामने आते हैं।

कुष्ठ मानव सभ्यता की सबसे पुरानी बीमारियों में से एक है। यह रोग पीड़ित का रूप रंग खराब कर देता है जिसके बाद उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। एक वक्त पूरे विश्व पर इस बीमारी का घातक रूप से कब्जा था, लेकिन जागरूकता, उपचार और लगातार प्रयासों द्वारा इस बीमारी पर काबू पाया गया और डबल्यूएचओ संगठन ने साल 2000 में इस बात की पुष्टि की कि दुनिया में प्रति दस हजार की आबादी में इस रोग की दर एक व्यक्ति से भी कम है। जिसके साथ ही संगठन ने दुनिया से इस रोग के सफाये का ऐलान कर दिया था।
भारत ने आर्थिक उदारीकरण (1991) की शुरुआत में इस रोग पर काबू पाने की मुहिम शुरु की थी उस समय देश में प्रति दस हजार की जनसंख्या पर 26 कुष्ठ रोगी थे। 14 वर्षो के अंदर यह संख्या 25 गुना घटकर प्रति दस हजार पर एक हो गई। जिसके बाद 2005 में भारत सरकार ने भी देश को कुष्ठमुक्त घोषित किया था। साथ ही यह दावे किए गए थे कि अब देश में कुष्ठ के गिने चुने मामले हैं जिनपर वक्त के साथ काबू कर लिया जाएगा लेकिन हाल ही में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है जिसके मुताबिक हर साल दुनिया के विभिन्न देशों से औसतन 2.14 लाख मामले कुष्ठ के सामने आते हैं इसमें चिंता की बात यह है कि इन मामले में 60 प्रतिशत भारत के होते हैं। यानि देश में सालाना 1.3 लाख कुष्ठ के मामले हर साल सामने आ रहे हैं।
ताजा रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि कुष्ठ रोग के 94 फीसद मामले सिर्फ 13 देशों से सामने आ रहे हैं और अब भी यह बीमारी खासी बड़ी आबादी को प्रभावित कर रही है। ऐसे कुल मामलों में महज तीन देशों भारत, इंडोनेशिया और ब्राजिल का हिस्सा 81 फीसदी है। जिसमें शीर्ष स्थान पर भारत है। इस हिसाब से भारत अभी कुष्ठमुक्त देश नहीं है क्योंकि डब्लयूएचओ के मुताबिक कुष्ठमुक्त कहलाने के लिए 10 हजार की आबादी में एक से भी कम मामले होने चाहिए लेकिन भारत इस लक्ष्य को पूरा नही कर पाता।
कर्नाटक स्थित एक कुष्ठ रोग की बस्ती
साल 2010-11 में अंतरराष्ट्रीय कुष्ठ रोग संघ की रिपोर्ट में कहा गया था कि उस वर्ष दुनिया में कुष्ठ रोग के दो लाख अट्ठाईस हजार चार सौ चौहत्तर मामले सामने आए जिनमें एक लाख छब्बीस हजार आठ सौ यानि 56 प्रतिशत मामले अकेले भारत के थे। उस समय इस संख्या में इजाफे की चिंता जताई गई थी लेकिन तत्कालीन सरकार ने इस ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। इसी की बानगी है कि ताजा रिपोर्ट में भारत में कुष्ठ के मामले बढे हैं। हैरानी की बात यह है कि सरकार द्वारा इतनी लापरवाही तब बर्ती गई थी जबकि 2011 में स्वयं केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया था कि जिन राज्यों में इस रोग का लगभग खात्मा होने का दावा किया गया था, वहां से कुष्ठ के नए मामले सामने आ रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और झारखंड समेत सोलह राज्यों में तीन फीसद लोग इस बीमारी की चपेट में हैं और कहीं-कहीं यह तेजी से फैल भी रहा है। इस रिपोर्ट में जो आंकड़े पेश किये गए थे वह चिंताजनक थे लेकिन वास्तविक नहीं क्योंकि भारत सरकार द्वारा हमेशा से कुष्ठ के आंकड़ों को छिपाया गया है।
 साल 2011 में ही अनेक स्वयंसेवी संगठनों की ओर से गठित एक राष्ट्रिय मंच ने कुष्ठरोगियों को दी जाने वाली पेंशन के सिलसिले में किए गए अपने अध्ययन में पाया था कि उस समय राज्य सरकारों द्वारा पेश किए गए आंकड़ों और हकीकत में कोई मेल नहीं था। मसलन, बिहार सरकार ने दावा किया था कि राज्य में कुष्ठ रोगियों की केवल चौबीस बस्तियां हैं, लेकिन जांच में ऐसी चौंसठ बस्तियां पाईं गईं। साल 2012 में निपॉन फाउण्डेशन द्वारा मध्यप्रदेश में किया गया एक सर्वेक्षण बताता है, कि राज्य में कुष्ठ रोगियों की तादाद तकरीबन चार हजार है और इनकी लगभग 34 बस्तियां हैं। जबकि राज्य सरकार द्वारा उस समय सरकारी रिकार्ड में कुष्ठ रोगियों की महज चार बस्तियां दर्शाई गई थीं। यही नहीं रिपोर्ट में कुष्ठ रोगियों की संख्या भी कुछ सैकड़ा भर दर्शाई गई थी। इन पुराने रिकॉर्डों को देखते हुए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भारत में कुष्ठ के 1 लाख 30 हजार से ज्यादा मामले हो सकते हैं।
कुष्ठ रोग का फैलाव देश में धीरे-धीरे बढ रहा है खासतौर पर मलिन बस्तियों में इस बीमारी के विषाणुओं का संचरण तेजी से हो रहा है। जाहिर है, एक बड़ी समस्या वास्तविक स्थित के आंकलन की है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कुष्ठ-प्रभावित राज्यों की श्रेणी में शामिल होने के डर से देश के कई राज्यों में कुष्ठ रोगियों की सही तादाद सामने नहीं आती। बीते साल कुछ गैर-सरकारी संगठनों की ओर से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में ऐसे आधे मामले दबा दिए जाते हैं। भारत में फिलहाल सालाना औसतन कुष्ठ के 1.3 लाख नए मामले सामने आ रहे हैं। अब इस बीमारी को खत्म करने और इसकी चपेट में आने वालों के साथ होने वाला भेदभाव खत्म करने के लिए डब्ल्यूएचओ ने अपनी नई वैश्विक रणनीति के तहत संबंधित सरकारों से इस मामले में और मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देने की अपील की है। इसके तहत वर्ष 2020 तक कुष्ठ से पीड़ित बच्चों की तादाद घटाने और इसके चलते होने वाली शारीरिक विक्लांगता दर को शून्य तक पहुंचाने का लक्ष्य तय किया गया है।
देश में अपीलें तो अक्सर होती रहती हैं लेकिन गौर कभी नहीं होता। इस रोग का भारत में एक बार फिर लौटने का कारण सरकारों की लापरवाही है। दरअसल, इस रोग की समाप्ति की औपचारिक घोषणा के बाद सरकार को यह शायद जरूरी नहीं लगा कि कुष्ठ रोगियों की संख्या पर नजर रखी जाए। इस मामले में स्वैच्छिक प्रयासों की भी अपनी सीमा है। यह जगजाहिर सच्चाई है कि भारत में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के प्रति किस तरह के सामाजिक दुराग्रह काम करते हैं। कुष्ठ रोग के शिकार आमतौर पर बेहद गरीब परिवारों और पिछड़े क्षेत्रों में पाए जाते हैं। भेदभाव, तिरस्कार और सामाजिक बहिष्कार के डर से बहुत सारे मरीज और उनके परिवार भरसक तथ्य छिपाते हैं। इसके अलावा, ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त करने या ट्रेन में आम यात्रियों के साथ यात्रा करने पर पाबंदी जैसे कई कानूनों के जरिए खुद सरकारी तौर पर कुष्ठ के मरीजों के साथ भेदभाव किया जाता है। जबकि यह साबित हो चुका है कि कुष्ठ अब न तो लाइलाज है न ही वंशानुगत। इसके ज्यादातर मामलों में संक्रमण का खतरा नहीं होता। खासतौर पर एक बार इसका इलाज शुरू होने के बाद इसके फैलने की आशंका नहीं होती। फिर भी इस बीमारी को एक सामाजिक अभिशाप माना जाता है। साफ है कि कुष्ठ निवारण योजना की खामियों के अलावा समाज में चली आ रही भ्रांतियों से निपटे बिना इस बीमारी का उन्मूलन नहीं हो सकेगा। आज के संदर्भ में यह बहुत जरूरी है कि देश में एक बार फिर कुष्ठ रोग से लड़ने के लिए अभियान चलाए जाएं क्योंकि अभी यह बीमारी आंशिक रूप से एक बार फिर पैर पसार रही है लेकिन सरकार और समाज का रुख कुष्ठ की तरफ इसी तरह उदासीन रहा तो हो सकता है कि शायद एक बार फिर देश को अपने कल के कलंक से जुझना पड़े।

बुधवार, 6 जुलाई 2016

विकास का आईना है पिपलांत्री


21वीं शताब्दी की शुरुआत से ही भारत में बढता प्रदूषण और घटता लिंगानुपात एक बहस व चिंता का विषय रहा है। जिसपर आए दिन कभी मंथन सभा तो कभी राज्यों व केंद्र सरकारों द्वारा नई-नई योजनाएं लाई जाती हैं जिन पर करोड़ों खर्च करके भी परिणाम शून्य ही रहता है। ऐसे में देश का एक गांव ऐसा है जिसने प्रकृति और बेटियों से ऐसा नाता जोड़ा, जिसने इस गांव को आदर्श गांव की संज्ञा दे डाली। पिपलांत्री गांव देश की राजधानी दिल्ली से करीब 600 किलोमीटर दूर राजस्थान में स्थित है। जहां हर ओर सिर्फ हरियाली और शांति ही देखने को मिलती है। न तो यहां किसी को बेटों की चाह है और ना ही यह आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल है। इस बात की गवाही गांव की गलियां और सड़कें खुद देती हैं।
राजस्थान के इस गांव के लोग बेटी के जन्म लेने पर 111 पेड़ लगाकर बेटियों के साथ-साथ पर्यावरण रक्षा की अनोखी मिसाल पेश कर रहे हैं। खास बात यह है कि गांव के लोग सिर्फ बेटियों के जन्म पर ही नहीं बल्कि किसी व्यक्ति की मृत्यू पर भी उसकी याद में 11 पेड़ लगाते हैं। आज जहां इस 5000 की आबादी वाले गांव में कुल 2 लाख 80,000 पेड़ पौधें हैं वहीं 2011 के आंकड़ों के अनुसार पिपलांत्री गांव का लिंगानुपात 990:1000 हैं। गांव की बेटियां रक्षा बंधन के दिन पेड़ों को राखी बांधती हैं।  इस गांव की कहानी लोगों के संकल्प और साहस की है, जिनके प्रयासों से बालिका भ्रूण हत्या और बाल विवाह के लिए चर्चित राज्य में बेटियों को जीवनदान मिला और पेड़-पौधे के लिए तरसता एक बंजर-पथरीला इलाका हरित क्षेत्र में बदल गया। हालांकि यह इलाका संगमरमर की खदानों के लिए मशहूर है, मगर बेटियों और पर्यावरण बचाने के अभियान ने इस गांव को नई पहचान दी है।

एक परिवार बच्ची के जन्म पर पेड़ लगाता हुआ
इस गांव में सिर्फ बच्चियों के पैदा होने पर ही ज़ोर नहीं दिया जाता बल्कि उन्हें एक बहतर भविष्य मिले यह सुनिश्चित भी किया जाता है। पूरे गांव में जब भी किसी परिवार में बेटी पैदा होती है तो गांव के लोग समुदाय के रूप में एक जगह जमा होते हैं और हर नवजात बालिका शिशु के जन्म पर पेड़ लगाने का कार्यक्रम होता है। इसके साथ ही बेटी के बेहतर भविष्य के लिए गांव के लोग आपस में चंदा इकट्ठा कर 21,000 रुपये जमा करते हैं। इसमें 10,000 रुपये लड़की के माता-पिता से लिए जाते हैं। 31,000 रुपये की यह राशि लड़की के नाम से 20 वर्ष के लिए बैंक में फिक्स कर दी जाती है। गांव की पंचायत द्वारा लड़की के अभिभावक को एक शपथपत्र पर हस्ताक्षर करके देना होता है, जिसके अनुसार माता-पिता द्वारा बिटिया की समुचित शिक्षा का प्रबंध किया जायेगा। उसमें यह भी लिखना होता है कि 18 वर्ष की उम्र होने पर ही बेटी का विवाह किया जायेगा। परिवार का कोई भी व्यक्ति बालिका भ्रूण हत्या में शामिल नहीं होगा और जन्म के बाद जो पौधे लगाये गये हैं उनकी देखभाल का जिम्मा भी उसी परिवार पर रहेगा। हालांकि पेड़ों की देखभाल की जिम्मेदारी सिर्फ लड़की के अभिभावकों को ही नहीं दी जाती, बल्कि पूरा समुदाय इन पेड़ों की देखरेख करता है। गांव के लोग सिर्फ पेड़ों की देखभाल ही नहीं करते बल्कि इनकी रक्षा भी करते हैं। वह पेड़ को दीमक से बचाने के लिए पेड़ के चारों तरफ घृतकुमारी(एलोवीरा) का पौधा लगाते हैं। यह पेड़ और घृतकुमारी के पौधे गांववालों की आजीविका के स्रोत भी हैं। इस गांव के ज्यादातर परिवारों का जीवन यापन इन पेड़ पौधों से ही होता है।

सरपंच की सोच का नतीजा
गांव की बेटियों पेड़ों को राखी बांधते हुए
हालांकि हमेशा से इस गांव की यह परंपरा नहीं रही है। इसकी शुरुआत गांव के पूर्व सरपंच श्यामसुंदर पालीवाल ने की थी। श्यामसुंदर पालीवाल का इस परंपरा को शुरु करने का कारण उनकी कम उम्र की बेटी का गुजर जाना था। जिसका उन्हें गहरा सदमा लगा था लेकिन अपनी बेटी के गुजरने के बाद उन्होंने कुछ अनोखा करने की ठानी जिससे पूरा गांव उनकी बेटी को हमेशा याद रखे। उन्होंने इस परंपरा को वर्ष 2006 में शुरू किया था जो आज भी कायम है। अब तक इस गांव में लाखों पेड़ लगाये जा चुके हैं और इस गांव की बेटियां पढ लिखकर गांव का नाम रोशन कर रही हैं। इस गांव की एक खास बात यह भी है कि पिछले सात-आठ वर्षों में इस गांव से पुलिस में एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ है।

पिपलांत्री गांव गढ रहा विकास के नए आयाम
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पिपलांत्री गांव के सरपंच
 श्यामसुंदर पालीवाल के साथ पौधारोपण करते हुए.. 
वर्ष 2007 में पिपलांत्री गांव को उसकी पर्यावरण नीति, स्वस्छता, निर्मलता के चलते राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किया गया था। इस गांव की सड़क महानगरों से ज्यादा साफ सुथरी हैं। हर घर में टॉयलेट, पीने योग्य पानी, बिजली व बच्चों के लिए शिक्षा की सुविधा उपलब्ध है। लेकिन 2004 से पहले ऐसा नहीं था। इस गांव की कायापलटी तब होनी शुरु हुई जब 2 फरवरी 2004 को श्याम सुंदर पालीवाल को इस गांव का सरपंच चुना गया। जिन्होंने पारदर्शिता व जन सहभागिता के साथ काम किया। उन्हीं की नीतियों के आधार पर गांव की कार्य योजना आज भी जनता व जन प्रतिनिधियों के द्वारा मिलकर तैयार की जाती है व योजनाओं को संचालित करने में दोनों की बराबर भोगीदारी होती है।  
गांव के सरपंच बनने के साथ ही सर्वप्रथम श्याम सुंदर पालीवाल ने सबसे पहले ग्राम पंचायत के सहयोग से सांझ ढलने के रात्रि तक "पंचायक आपके द्वार" कार्यक्रम चलाया तथा पंचायतवासियों की समस्याओं को उनके गांव चौपाल पर जाकर सुना, समझा व जहां तक हो सका इनका शीघ्र निस्तारण किया गया।
पंचायत आपके द्वारा कार्यक्रम के तहत ही यह बात निकलकर सामने आई की पिपलांत्री गांव में शिक्षा, पीने योग्य पानी, विद्युत, गंदगी, बीमारियों आदि की गंभीर समस्या है साथ ही गांव में सड़कों व पक्के रास्तों की बेहद कमी थी।
ऐसे में पंचायत ने सोच विचार करने से बहतर काम करने पर बल दिया। सरपंच व पंचायत के सहयोग से सबसे पहले सेक्टर रिफोर्म एवं स्वजलधारा योजना शुरु की गई। जिसमें जनभागीदारी को बढाने के लिए 11 पेयजल योजनाएं स्वीकृत कर ग्राम जल एवं स्वच्छता समीतियों का गठन किया गया व सम्पूर्ण पंचायत में पेयजल संकट को हमेशा के लिए दूर किया गया।
पेयजल के बाद गांव की सबसे बड़ी समस्या बिजली व गंदगी की थी। गंदगी की समस्या ऐसी थी जिसे गांवावालों के सहयोग के बिना कभी दूर नहीं किया जा सकता है। ऐसे में गांव को स्वच्छ बनाने हेतु सर्वप्रथम सरपंच, पंचायत सदस्यों व अन्य अधिकारियों ने गांव के प्रबुद्ध ग्रामवासियों को साथ लेकर स्वयं साफ-सफाई का कार्य प्रारंभ किया। इसी के तहत सभी चौराहों पर कचरा पात्र रखवाए गए, सार्वजनिक जगहों व विद्यालयों तथा आंगनवाड़ी केंद्रों में सुलभ शौचालयों का निर्माण करवाया गया। गांव की नियमित सफाई एवं स्वच्छता हेतु इस कार्य का दायित्व गांव जल एवं स्वच्छता समीतियों को सौंपा गया।
गांव को रोशन करना ग्राम पंचायत के लिए सबसे बड़ी चुनौति थी क्योंकि इसके लिए बजट एक बहुत बड़ी चुनौति थी जिसके लिए पंचायत सरकार पर निर्भर थी। ऐसे में पंचायत ने इसका एक अनूठा समाधान निकाला। सबसे ग्राम पंचायत ने ग्रामीणों को विश्वास दिलाया कि वह उनका पैसे उनके विकास के लिए ही खर्च करेगी और गांव को रोशन करेगी। हालांकि शुरुआत में गांववालों ने पंचायत पर विश्वास नहीं किया लेकिन धीरे-धीरे जब पंचायत के सदस्यों ने घर-घर जाकर अपनी बात लोगों तक पहुंचाई तो उनका भरोसा पंचायत पर बढने लगा। जिसके बाद गलियों और रास्तों में कम वोल्टेज की ज्यादा रोशनी करने वाली लाइटें लगाई गई। इन लाइटों को लगाने का खर्चा पंचायत ने किया और जिन घरों के आगे यह लाइटें रोशनी करती है उनके गृहस्वामियों ने इसके बिजली का खर्च स्वयं उठाया। पंचायत का यह प्रयोग अदभुत रूप से सफल रहा। पंचायत के इस तरह के कार्यों से लोगों का भरोसा पंचायत में बढने लगा जिसके बाद गांव के मुख्य मार्गों को आपसी बातचीत व समझ से ग्रामवासियों का सहयोग लेकर अतिक्रमण मुक्ता कर, चौड़ा किया गया, सड़के व सीमेंट कंक्रीट रोड़ों के साथ पक्की नालियों का निर्माण किया गया।
आमजन में स्वच्छता संबंधी जागृति लाने के लिए विद्यालयों में अध्यापकों ने बच्चों को स्वच्छता के बारे में शिक्षित किया, नारों व रैलियों के साथ स्थानीय लोक कलाकारों द्वारा गांव-गांव में जनसम्पर्क अभियान चलाया गया। घर की सफाई, व्यक्तिगत स्वच्छता, पेयजल का रख रखाव डण्डीदार लाठों का प्रयोग, भोजन करने से पहले एवं शोच के पश्चात साबुन से हाथ धोने, शिशुओं की देखभाल को लेकर कई जनसंपर्क अभियान चलाए गए। गांव में टीकाकरण का जिम्मा ए.एन.एम आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं व साक्षरता प्रेरकों ने उठाया। पंचायत के युवाओं व महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए विभिन्न स्वयंसंवी संस्थाओं के माध्यम से रोजगार प्रशिक्षण शिविर, गृह उद्योग प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि विविध शिविरों का आयोजन किया गया।
गांव में जागरूकता को हर घर में पहुंचाने के लिए ग्राम पंचायत के 11 वार्डपंचों व समस्ता 103 कर्मचारियों ने गांव में घरों को आपस में बांटकर जनसंपर्क अभियान चलाया। जिसके बाद दिन बीतने के साथ गांव में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिले। धीरे-धीरे गांव स्वच्छ हुआ, रात के समय चमकने लगा, शिक्षा का स्तर बेहतर होने लगा। जिसके बाद पंचायत ने 15 अगस्त 2006 को निर्मल ग्राम पुरस्कार हेतु आवेदन किया। जिसपर केंद्र सरकार के नियुक्त पर्यवेक्षकों द्वारा विस्तृत सर्वेक्षण किया गया और सभी पैमानों पर गांव को नापने के बाद 4 मई 2007 को राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम द्वारा ग्राम पंचयात पपिलांत्री को राष्ट्रपति पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया।

देश के सबसे विकसित गांव में से एक
पिपलांत्री गांव आज देश के सबसे विकसित गांवों में से एक है। इस गांव की पूरी जानकारी अंग्रजी व हिंदी भाषा में वेबसाइट पर उपलब्ध है। इस वेबसाइट में पंचायत में चल रहे विकास कार्यक्रमों का जिक्र है और भविष्य की विकास योजनाओं के बारे में जानकारी भी गई है। इस गांव में कार्य करने वाली पंचायत के पारदर्शिता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांव से जुड़ी सभी जानकारियां, मसलन अभी तक गांव में कितने ट्रांसफरमर लगे हैं, किस गांव में कितने लोगों के पास बिजली का कनेक्शन है, किन गांवों में आंगनबाड़ी का काम चल रहा है, कहां-कहां अस्पताल और आयुर्वेदिक औषधालय हैं, कितनी नर्से काम कर रही हैं, कितने टय़ूबवेल हैं, कितने हैंडपंप हैं, प्राथमिक- माध्यमिक और उच्च विद्यालय कहां-कहां हैं और कितनी संख्या में शिक्षक उपलब्ध हैं, जंगलों की क्या स्थिति है, जलछाजन के लिए क्या काम हो रहा है आदि पूरी जानकारी गांव की वेबसाइट पर उपलब्ध है।

आज एक ओर जहां देश के गांव अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं ऐसे में पिपलांत्री गांव व गांव की पंचायत एक प्रेरणा की तरह है। यह न सिर्फ बेटियां बचाने, पेड़ लगाने की राह दिखाता है, बल्कि पंचायत स्तर पर जरूरी सूचनाओं का संग्रहण करना भी सिखाता है। आज पूरे प्रदेश में पिपलांत्री मॉडल लागू करने की तैयारी हो रही है, राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री भी इस गांव के कायल है। इसी की बानगी है कि बीते महीनों प्रदेश के 33 जिलों के 175 आईएएस और आरएएस अफसर गांव में यह देखने गए थे कि कैसे पिपलांत्री जैसे सामान्य गांव को निर्मल और आदर्श गांव के रूप में देशभर में पहचान दिला सकते हैं। उन्होंने गांव में एक दिन की कार्यशाला में यह भी सीखा कि कैसे नरेगा के बजट का उपयोग कर और जनभागिता से शौचालय, सब सिटी सेंटर, स्कूल भवन, सड़क, चारागाह विकास और पर्यावरण को बढावा दिया जा सकता है। सिर्फ यही नहीं भविष्य में इस गांव की केस स्टडी को डेनमार्क के प्राइमरी और मिडिल स्कूल में पढ़ाया जाएगा। 
         आज यह गांव "जहां चाह, वहां राह" की पंक्तियों को धरातल पर उतारता है और देश के सभी गांवों ही नहीं शहरों को भी यह सिखाता है कि वह किस प्रकार आपसी सहयोग से अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर सकते हैं।

शुक्रवार, 10 जून 2016

गांव में उड़ती मौत की राख !

छोटू राम थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाली राख से पूरा गांव प्रभावित है। किसी को दमा है, किसी की आंखें चली गईं तो कोई चर्म रोग से पीड़ित है लेकिन गरीबी के दंश और थर्मल प्लांट के श्राप के साथ यहां के लोग जीने को मजबूर हैं।

 आज विकास का  उद्देश्य मानव जीवन को सरल बनाना है जबकि पहले इसका अर्थ बौद्धिकता से था लेकिन 20वीं शताब्दी के शुरुआत से ही इसके मायने बदल गए और दुनिया विकास के लिए आधुनिकता की अंधी दौड़ में दौड़ पड़ी। पिछली शताब्दी के आखिरी दशकों में भारत भी इस दौड़ का हिस्सा हो गया और देखते ही देखते विकासशील देशों में शामिल हो गया। लेकिन आज भारत सहित दुनिया के कई देश हैं जहां विकास के नाम पर लोगों के जीवन से खेला जा रहा है। एक ऐसा ही गांव हरियाणा स्थित लापरा भी है।  जो यमुना नगर से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां की जिंदगियों के साथ पिछले 8 सालों से खिलवाड़ हो रहा है लेकिन ना तो राज्य सरकार को इनसे कोई लेना देना है और ना ही केंद्र को। दरअसल बिजली आपूर्ति की मांग पूरी करने के लिए लापरा गांव में बना दीन बंधू छोटू राम थर्मल पावर प्लांट स्थानीय लोगों के लिए मुसीबत बना हुआ है। थर्मल से उडऩे वाली राख से गांव छोटा लापरा के लोग बीमारियों की चपेट में आ गए हैं। थर्मल पावर प्लांट से उड़ने वाली राख यहां मौत बनकर घूम रही है। लापरा गांव के लोग मर-मरकर अपनी जिंदगी काट रहे हैं। गांव में सांस व एलर्जी के मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है।

ना नौकरी मिली ना रोशनी राख फांकने को मजबूर लोग
दीन बंधु छोटू राम विद्युत प्लांट लापरा गांव से सटे 1100 एकड़ भूमि पर स्थित है। इसकी शुरुआत 2008 में हुई थी। इस प्लांट को शुरु करने के लिए दर्जनों गांवों के ग्रामीणों की कृषि योग्य भूमि हमेशा के लिए अधिग्रहित कर ली गई थी। जिसके साथ ही प्रशासन व प्लांट मालिकों द्वारा गांव के लोगों से यह वादा किया गया था कि प्लांट के शुरु होने पर गांव को 24 घंटे बिजली व लोगों को नौकरी मिलेगी। इसके साथ ही गांव विकास की ओर बढेगा लेकिन 8 साल बाद गांव में जहां आज भी पहले की तरह अंधेरा है वहीं ग्रामीण या तो किसानी पर निर्भर हैं या गांव से बाहर जाकर नौकरियां करते हैं। हालांकि कुछ ग्रामीणों को प्लांट द्वारा नौकरी दी गई है लेकिन इनकी संख्या न के बराबर है।
विकास के बजाय इस गांवों के लोग आंखें और अपना स्वास्थ्य खो रहे हैं। लापरा गांवों के लोगों में बड़ी मात्रा में दमा, चर्मरोग, नेत्र संबंधी व फेफड़े की बीमारियां होने लगी हैं। बिजली के प्लांट से उन्हें रोशनी नहीं अंधेरा मिल रहा है। इस समस्या को लेकर गांव की पंचायत ने कई बार अपना विरोध दर्ज किया है। यहां तक की कई बार तो थर्मल प्लांट पर ताला लटकाने तक की धमकी दी है लेकिन हर बार इन्हें आश्वासनों द्वारा समझा बुझाकर चुप करवा दिया जाता है। गांव के सरपंच अजीज खान बताते हैं कि जब 2008 में यह प्लांट चालू हुआ था तो उससे पहले ही विद्युत विभाग के डायरेक्टर और उस समय की कांग्रेस सरकार ने यहां के लोगों को आश्वासन दिया था कि गांव को 24 घंटे बिजली मिलेगी। गांव के आसपास शुद्व वातावरण रहेगा, गांव में मुफ्त दवाई खाना रहेगा लेकिन सभी वादे कागजों की एक फाइल में बंद होकर रह गये।

राख का कुआं ले रहा लोगों की जान !
लापरा गांव इस प्लांट के थर्मल की सफेद राख को इकट्ठा करने के लिए बनाए गए टैंक से 350 मीटर की दूरी पर बसा है। थर्मल पावर प्लांट की वेस्ट सफेद राख को इकट्ठा करने के लिए कंपनी की ओर से गांव छोटा लापरा के नजदीक करीब 30 एकड़ से अधिक जमीन पर दो टैंक बनाए गए हैं। अधिकारियों की ओर से राख को हवा में उडऩे से बचाने के लिए कोई ठोस प्रबंध नहीं किया गया है। जिससे हवा चलने के साथ ही राख गांव को ढक लेती है। यह सिलसिला पिछले 8 सालों से जारी है। गांव के नंबरदार शिवदयाल इस बारे में कहते हैं कि थर्मल से उडऩे वाली राख से गांव में हर घर से लोग बीमारी की चपेट में आ रहे हैं। गांव में सांस, टीबी व एलर्जी के मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। इन बीमारियों की चपेट में हर वर्ग के लोग आ रहे हैं। वह बताते हैं कि जिस दिन तेज हवा चलती है उस दिन लोग घरों में खाना भी नहीं बना पाते। गांव के सरपंच अजीज़ खान से बातचीत में उन्होंने असल न्यूज को बताया कि इस गांव में लगभग हर व्यक्ति चर्म रोग से ग्रसित हैं। गांव में हर तीन महीने में एक व्यक्ति की हार्ट अटैक से मौत हो जाती है और हर तीसरे व्यक्ति को दमा है।

नहीं हुआ कोई समाधान 

सरपंच अजीज खान ने हमें आगे बताया कि वह कई बार विद्युत प्लांट के चीफ इंजीनियर सदर भटनागर से मिले भी और लिखित में इस राख के विषय पर कारवाई की मांग की लेकिन किसी के सर पर आज तक जू नहीं रेंगी। उन्होंने बताया कि विभागीय अधिकारियों से मिलने के बाद राख पर मोटर से पानी का छिड़काव शुरू कर दिया गया। मगर पानी का यह छिड़काव राख को उडऩे से रोकने के लिए नाकाफी है। उन्होंने राज्य सरकार के पास भी गांव की समस्या को लेकर शिकायत के बारे में पत्र भेजा है लेकिन अभी तक इस बारें में कोई काम नहीं किया गया। वह बताते हैं कि इन टैंकों में पड़ी राख से जहां लोग बीमार हो रहे हैं वहीं किसानों की खेती भी बर्बाद हो रही है। उनके बताए मुताबिक जब यमुना का पानी ओवरफ्लो होता है तो टैंकों की वजह से वह गांव के बाहर नहीं निकल पाता और सीधा गांव में चला जाता है जिससे करीब 250 एकड़ जमीन प्रभावित होती है और यह लगभग हर साल हो रहा है। जिससे यहां का किसान बर्बादी की कगार पर खड़ा है। गांव की आशा वर्कर सुनीता हमें बताती हैं कि जब से यह प्लांट शुरु हुआ है गांव में समस्याओं का अंबार लग गया है। गांववाले तो इसकी जद में है हीं पशु भी इससे नहीं बच पा रहे हैं। दरअसल, राख उड़ने की वजह से वह पशुओं के चारे में मिल रही है। चाहें भुसा हो या घास हर जगह यह राख मौजूद है। इसे पशुओं को खिलाने से उनका लिवर खराब हो रहा है। पशु डॉक्टरों का कहना है कि यहां के भूसे व राख को पशुओं को ना खिलाया जाए ऐसे में गांववालों का सवाल है कि वह अपने पशुओं को खिलाएं तो क्या? सुनाती ने हमें आगे बताया कि इस राख की वजह से खेती भी खराब रही है। इससे फसलों को भी नुकसान हो रहा है। गांववाले एक जुट होकर कई बार प्लांट के चीफ के पास भी इस समस्या को लेकर गए हैं लेकिन हर बार सिर्फ आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला। उनके मुताबिक इस समस्या को लेकर प्लांट द्वारा यह भी कहा गया था कि गांव के लोगों को जरूरी उपचार प्लांट की तरफ से मुहैया कराया जाएगा लेकिन अभी तक उपचार के नाम पर भी प्लांट की ओर से कुछ नहीं किया गया है।  


गांव बेहाल प्लांट मालामाल
प्लांट से निकलने वाली राख जहां गांव के लोगों के लिए बड़ी समस्या बनी हुई है। वहीं दूसरी ओर प्लांट के चीफ व अन्य अधिकारी राख को सुखाकर सीमेंट की फैक्ट्रियों को बेचकर खूब माला-माल हो रहे हैं। अजीज खान ने इस बारे में बताया कि प्लांट के मालिकों द्वारा अपनी जेबें भरने के लिए गांव की समस्याओं को और बढाई जा रही हैं। सरपंच के मुताबिक प्लांट अधिकारी इस राख को सीमेंट की एक कंपनी श्री सीमेंट को बेचते हैं। ईंट बनाने के लिए राख का पतला होने जरूरी होता है मोटी राख को कंपनी लेती नहीं है इसलिए रात को समय प्लांट के लोग ट्रैकरों में कलटीवेटर की मदद से इस राख को पतला बना रहे हैं जिससे वह हल्की हो जाती है और थोड़ी सी भी हवा चलने पर ज्यादा उड़ती है। कई बार शिकायत करने पर प्लांट द्वारा यह काम बंद कर दिया गया लेकिन कुछ ही समय बाद वह फिर से ऐसा करने लगते हैं। अज़ीज खान ने हमें बताया कि डीआरडी के हिसाब से ऐसे थर्मल प्लांटों से निकलने वाली राख से जो कमाई होती है उसका पैसा राख से प्रभावित गांव की चिकित्सा पर खर्च होता है लेकिन प्लांट के मालिकों द्वारा चिकित्सा के स्तर पर गांव में कोई काम नहीं कराया जा रहा। प्लांट के आला अधिकारियों के लिए प्लांट से 2 गांवों की दूरी पर 500 एकड़ में रिहाइश की सुविधा की गई है। जो स्वच्छ वातावरण और हरियाली से पूर्ण है। कर्मचारियों की रिहाइश को गांव से मीलों दूर बनाने का कारण उसे राख के प्रदूषण से दूर रखना है।

2008 से पहले इस गांव को जो सपने दिखाए गए थे अब वह डरावनी हकीकत में तबदील हो चुके हैं। जिसे जीने के लिए ग्रामीण मजबूर हैं। दसियों दरखवास्तों के बाद भी ना तो प्लांट अधिकारी इनकी ओर देखने को तैयार हैं और ना ही प्रशासन इनकी सुन रहा है और इस गांव के युवाओं, बुजुर्गों और बच्चों की जिंदगी राख की चपेट में आकर बर्बाद हो रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कब तक ये गांववाले इसी तरह जीते रहेंगे या फिर इनकी जिंदगियों में बदलाव आएगा तो कब ?


प्लांट से निकलने वाली राख से प्रभावित कुछ ग्रामीण

पूजा, निवासी, लापरा गांव
पूजा की उम्र 20 वर्ष है। उसे दमे की बीमारी है। डॉक्टरों के मुताबिक उसे यह बीमारी थर्मल प्लांट से निकलने वाली जहरीली राख की वज़ह से हुई है। पूजा के भाई सुशील कुमार ने असल न्यूज को बताया कि करीब दो साल पहले जब पूजा को सांस में दिक्कत होने लगी तो उन्होंने उसके कुछ टेस्ट करवाये जिसके बाद पता लगा कि उसे दमा है। छोटी उम्र में इस बीमारी की वज़ह से पूजा की जिंदगी ठहर गई है। उसके भाई को दिन-रात यह चिंता सता रही है कि अब उसकी बहन की शादी कैसे होगी।






रिहान, निवासी, लापरा
राख का प्रभाव सिर्फ बड़ों पर ही नहीं बच्चों पर भी पड़ रहा है। जिसकी वज़ह से उनका बचपन खत्म हो रहा है। रिहान की उम्र सिर्फ 2 साल है और उसकी दोनों किडनियां खराब हो रही हैं। उसके पिता लायाकत अली ने हमें बताया कि करीब एक साल पहले रिहान ने घर की छत पर पड़ी मिट्टी खा ली थी जिसमें राख मिली हुई थी। जिसके बाद उसके पेट में तेज दर्द उठने लगा। कुछ टेस्ट कराने पर पता लगा कि मिट्टी में मिली राख का असर उसकी किडनियों पर पड़ा है। जिसकी वज़ह से उसकी दोनों किडनियां खराब होने की कगार पर हैं। लायाकत पिछले एक साल से अपने बेटे का इलाज चंड़ीगढ स्थित एक अस्पताल में करवा रहे हैं। जिसमें करीब दो लाख का खर्चा हो चुका है तथा अभी और पैसा खर्च होना बाकी है लेकिन लियाकत की हिम्मत टूटने लगी है क्योंकि पेशे से एक मजदूर होने के कारण अब उसके पास इतना पैसे नहीं है कि वो अपने बेटे का इलाज करा सके। 


सलामुद्दीन, निवासी, लापरा
सलामुद्दीन लापरा गांव में रहते हैं। प्लांट लगने के करीब 2 साल बाद उनकी आंखें चली गई। डॉक्टरों ने इसका कारण उन्हें राख का आंखों में जाना बताया। इस राख के कारण इनकी आंखें इस कदर खराब हो चुकी हैं कि ऑपरेशन के बाद भी वह ठीक नहीं हो सकीं। सलामुद्दीन के दो बेटे हैं जो उनके साथ ही मजदूरी करते थे। लेकिन उनकी आंखें चले जाने के कारण अब वह काम नहीं कर सकते। आज इस प्लांट की वजह से इनके परिवार की आय का एक स्त्रोत खत्म हो चुका है। सलामुद्दीन के बेटों को चर्म रोग है। ऐसे में उन्हें यह चिंता सता रही है कि इस राख के प्रकोप से कहीं उनकी पीढीयां ही खत्म ना हो जाए।